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कविता

सूर्य संधिकाल का

स्कंद शुक्ल


जब किसी की लंबी परछाईं देखो न तुम,
तो जान लेना कि वह कमजोर सूरज वाले संधिकाल में जी रहा है।
मगर संधिकाल में अंतर कैसे पड़े मालूम?
कैसे जाने कोई कि यह सुबह है या शाम?
किस तरह से तय किया जाए कि आशा का उजाला आने को है
अथवा निराशा का अँधेरा?
मालूम करने से कोई लाभ नहीं
संधिकाल तो फिर संधिकाल ही रहेगा
उसके बाद क्या होगा, यह कयास लगाए बिना तुम
कृत्रिम गुपचुप प्रकाश का इंतजाम करो
और अगर फिर भी दिल डूबने लगे तो बस इतना याद रखो
कि यह पहला दिन नहीं होगा
और न पहली रात होगी
इसलिए ध्यान केवल ज्योति जगाने और पाने में लगाओ
जितनी भी मिल सके, जहाँ भी, जैसे भी।


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